Sunday, October 27, 2013

जिंदगी कि तलाश

निकला था अपने घर से मैं जिंदगी की तलाश में,

चलते चलते थक गया रुका ना हार के,
कि ढूंढ़नी थी मंजिल मुझे दरिये थे लांगने

लम्बा था सफ़र मेरा तो हमसफ़र चुन लिया,
कुछ दूर साथ चल के वो भी ठहर गया

राह में कुछ मोड़ मुझको ऐसे मिले,
कुछ दूर जिनपे चल के मुझे लौटना पड़ा

चलता रहा मैं पत्थरों पे दर्द बहुत मिले,
रुका नहीं उनसे भी मैं कि शायद यही नसीब है

दिख गयी मंजिल मुझे पर रास्ता कठिन है,
चल रहा हूँ आज भी और हमसफ़र कई है

ना जाने कब एक रह पे मेरे कदम बहक गए,
ना जाने कब उस भीड़ में मैंने खुद को भुला दिया

गिरते गिरते बच गया कि अब संभल गया हूँ मैं
फिर से मंजिल कि रह पे अब चल पड़ा हूँ मैं 

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